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15 Harivansh rai bachchan poems | हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ

Harivansh rai bachchan poems : हरिवंश राय बच्चन एक लेखक और कवी थे | जिनका जन्म 27 नवम्बर ,१९०७ को हुआ था | हमारे फिल्म जगत के अभिनेता श्री अमिताभ बच्चन उन्ही के सुपुत्र है |
उन्होंने अलहाबाद में अपनी पढाई की थी | हरीवंश राय बच्चन श्रेष्ठ कवियों में से एक कवी माने गए है  |
 हरीवंश राय बच्चन के उपर अनेक पुस्तके लिखी गयी है | उनकी मृत्यु 18 जनवरी , 2003 में मुंबई में हुई थी | उनका प्रशिद्ध कविता संग्रह “मधुशाला” है | बच्चन साहब का विवाह 1926 में स्यामा बच्चन से हुआ था लेकिन टीबी के कारण उनकी मृत्यु हो गयी उसके पांच साल बाद उनका विवाह तेजी सूरी से हुआ जो एक गायन से जुडी हुई थी |

Harivansh rai bachchan poems

हरिवंश राय बच्चन के कविता संग्रह के नाम निचे दिए हुए है |
  1. तेरा हार ,
  2. मधुशाला ,
  3. मधुबाला ,
  4. मधुकलश ,
  5. आत्म परिचय ,
  6. निशा निमंत्रण ,
  7. एकांत संगीत ,
  8. आकुल अंतर ,
  9. सतरंगिनी ,
  10. हलाहल ,
  11. बंगाल का काल ,
  12. खादी के फूल ,
  13. सूत की माला ,
  14. मिलन यामिनी ,
  15. प्रणय पत्रिका ,
  16. धार के इधर-उधर ,
  17. आरती और अंगारे ,
  18. बुद्ध और नाचघर ,
  19. त्रिभंगिमा (1961),
  20. चार खेमे चौंसठ खूंटे ,
  21. दो चट्टानें ,
  22. बहुत दिन बीते ,
  23. कटती प्रतिमाओं की आवाज़ ,
  24. उभरते प्रतिमानों के रूप ,
  25. जाल समेटा,
  26. नई से नई-पुरानी से पुरानी
इन सब कृति में से एक कृति ” दो चट्टानें ” को हिंदी कविता के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सन्मानित किया गया था | साहित्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा पदम भूषण से सन्मानित किया गया था |
उन्होंने कई आत्मकथा भी लिखी हुई है जैसे की ” क्या भूलू क्या याद करू “, “बसेरे से दूर”, “नीड़ का निर्माण फिर ” जैसी आत्मकथा भू उन्हीने लिखी है |
तो आइ ए उनकी कुछ काव्य रचना विस्तार से देखते है |

  #1. त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब रजनी के सूने क्षण में,
तन-मन के एकाकीपन में
कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
जब उर की पीडा से रोकर,
फिर कुछ सोच समझ चुप होकर
विरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ हटाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
पंथी चलते-चलते थक कर,
बैठ किसी पथ के पत्थर पर
जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पांव दबाता,
त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!
– हरिवंशराय बच्चन –

#2.नीड का निर्माण

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगा‌ए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लि‌ए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!
– हरिवंशराय बच्चन –

#3.Aatm Parichay Poem In Hindi

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;
जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!
मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,
उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
– हरिवंशराय बच्‍चन –

#4.Agnipath Poem By Harivansh Rai Bachchan

वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,
एक पत्र छाँह भी,
माँग मत, माँग मत, माँग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
– हरिवंशराय बच्चन –

#5.Path ki Pahchan Poem By Dr.Harivansh Rai Bachchan

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।

पुस्तकों में है नही
छापी गई इसकी कहानी
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की ज़बानी
अनगिनत राही गए
इस राह से उनका पता क्या
पर गए कुछ लोग इस पर
छोड पैरौं की निशानी
यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है
खोल इसका अर्थ पंथी
पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा
व्यर्थ दिन इस पर बिताना
अब असंभव छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना
तू इसे अच्छा समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी
सोंच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना
हर सफल पंथी यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है
तू इसी पर आज अपने
चित का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान करले।
है अनिश्चित किस जगह पर
सरित गिरि गहवर मिलेंगें
है अनिश्चित किस जगह पर
बाग बन सुंदर मिलेंगे।
किस जगह यात्रा खतम हो
जाएगी यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित कब सुमन कब
कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छूट जाएँगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी रुकेगा
तू न ऐसी आन कर ले।

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।

– हरिवंशराय बच्चन –

#6.Jo Beet Gayi So Baat Gayi Poem

जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई।।
– हरिवंश राय बच्चन –

#7.चल मरदाने 

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गाते गीत ।

एक हमारा देश, हमारा

वेश, हमारी कौम, हमारी
मंज़िल, हम किससे भयभीत ।
चल मरदाने, सीना ताने,हाथ हिलाते, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गाते गीत ।हम भारत की अमर जवानी,
सागर की लहरें लासानी,
गंग-जमुन के निर्मल पानी,

हिमगिरि की ऊंची पेशानी

सबके प्रेरक, रक्षक, मीत ।

चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।

जग के पथ पर जो न रुकेगा,

जो न झुकेगा, जो न मुडेगा,

उसका जीवन, उसकी जीत ।चल मरदाने, सीना ताने,
हाथ हिलाते, पांव बढाते,
मन मुस्काते, गाते गीत ।

– हरिवंश राय बच्चन –

#8.साथी सब कुछ सहना होगा 

मानव पर जगती का शासन,जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधों में रहना होगा!

साथी, सब कुछ सहना होगा!हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा !
– हरिवंश राय बच्चन –

#9.संवेदना 

क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी ?

क्या करूँ ?

मैं दुःखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,

मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा

रीति दोनों ने निभाई,
किंतु इस आभार का अब

हो उठा है बोझ भारी

क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी ?
क्या करूँ ?

एक भी उच्छ्वास मेरा

हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूँदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी?
क्या करूँ?
कौन है जो दूसरे को
दुःख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दुःख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी?

क्या करूँ?

क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,

हर पथिक जिस पर अकेला,

दुःख नहीं बँटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में

वेदना जो है दिखाता,

वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता,
तुम दुःखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी?
क्या करूँ?

– हरिवंश राय बच्चन –

#10.दिन जल्दी जल्दी ढलता है 

हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं –
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे –
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल? –
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

#11.था तुम्हे मैंने रुलाया 

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!
हाय, मेरी कटु अनिच्छा!
था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर –
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!

#12.क्षण भर को क्यों प्यार किया था 

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’
और न कुछ मैं कहने पाया –
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में –
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

#13.आज तुम मेरे लिए हो

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझ पर तुम किए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,
वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु-विष पिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।

#14.आ रही रवि की सवारी 

आ रही रवि की सवारी।
नव-किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,

बादलों-से अनुचरों ने स्‍वर्ण की पोशाक धारी।

आ रही रवि की सवारी।
विहग, बंदी और चारण,
गा रही है कीर्ति-गायन,
छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी।
आ रही रवि की सवारी।
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह-
रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी।
आ रही रवि की सवारी।

#15.मधुशाला  

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।
मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ –
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।
मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।
सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।
जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।
मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।
हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।
जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।
बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
‘होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।
बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला
‘और लिये जा, और पीये जा’, इसी मंत्र का जाप करे
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।
बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,

रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।

Video of Harivansh rai bachchan poems

यदि आप Harivansh rai bachchan poems कावीडियो देखना चाहते हैं तो यहां भी इसके लिए एक समाधान है। आप हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ के बारे में जानने के लिए नीचे दिया गया वीडियो देख सकते हैं |

Conclusion

हमारी ये Harivansh rai bachchan poems  की जानकारी दोस्तों आपको कैसी लगी, अगर आपको पसंद आयी हो तो  दोस्तों और परिवारके साथ शेयर करना ना भूलें और अगर आपका कोई सवाल है  तो हमें कमेंट करके बता सकते हे |

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